रोशनी के रेशों से बनी,
उम्मीद की चादर.
हम ओढ़ लेते हैं तानकर,
और बिछाकर लेट जाते हैं उसपर, बेसुध...
जब कभी न सच होने वाले सपने देखते हैं...
लपेट लेते हैं खुद को उसमें,
जब जमने लगती है आसपास,
दर्द की सर्द बर्फ...
उम्मीद की चादर में लिपटी, दो रोशन आँखें,
अंधेरों का काजल लगाए, ताकती हैं दूर...
खुशगवार सुबह का रास्ता...
निकलते हैं जब किसी नए सफ़र पर,
उम्मीद की चादर,
भर लेते हैं यादों के बैग में, ठूंसकर,
और सफ़र के सबसे कठिन मोड़ पर,
निकलते हैं उसे इस्तेमाल के लिए,
गर्माहट, ऊर्जा, खुशबू की आस में...
जब झीने पड़ने लगते हैं, रोशनी के रेशे,
तो उम्मीद की फटती चादर से,
झांकते हैं, अवसाद, दुःख, निराशा...
हम फीकी खुशियों और नीलाम सपनों के पैबंद टांककर,
कर देते हैं उसकी मरम्मत,
और तब, वो चादर, उम्मीद की चादर,
'हम' हो जाते हैं...